Welcome to Rendezvous - a doctor's blog meant to bring out inspiring thoughts and stories about triumphant attitudes of patients towards their chronic illnesses.
Thursday, 31 May 2018
दरख़्त वाला भूत
क्या आपका कभी किसी भूत से पाला पड़ा है?
मेरा पड़ा है.
या यूँ कहिये, मेरे कुछ हमसफ़र थे, जिन्हे ऐसा ही अनुभव हुआ था.
पेश है एक व्यक्तिगत संस्मरण- एक सच्ची घटना.
बोर्ड ऑफिस भोपाल का वह बिना हाथ वाला भूत
दिसंबर १९९१: सर्दी के दिन थे. उन दिनों मैं भोपाल स्थित कस्तूरबा हॉस्पिटल में ओफ्थल्मोलॉजी विभाग में हाउस अफसर हुआ करता था. मेरे सभी साथी गाँधी मेडिकल कॉलेज परिसर में स्थित हमीदिया हॉस्पिटल में कार्यरत थे. बस इक्का दुक्का मित्र मेरी तरह बी एच ई एल इलाके में थे.
ऐसे में सप्ताहांत में मैं अपने मित्रों से मिलने दूसरे परिसर में स्थित होस्टल्स में जाया करता था.
कॉलेज में तनोज और मैं... बस दो ही जुनूनी थे जिन्होंने इंटर्नशिप में आकर साइकिल खरीदी थी. मेरी लाल और उसकी मैरून - दोनों ही हीरो हॉक.
इसी साइकिल से भोपाल जैसे पहाड़ियों के शहर में मैं कहीं भी पहुँच जाया करता था .
उस रोज़ भी सभी मित्रों से मिल कर मैं देर रात, लगभग १० साढ़े दस बजे अपनी एक हॉस्टल से कस्तूरबा हॉस्पिटल वाली हॉस्टल की ओर निकल पड़ा.
कमला पार्क, रविंद्र भवन से होते हुए रंगमहल सिनेमा... उसके बाद न्यू मार्केट ... सब कुछ ठीक चल रहा था.
मैंने साइकिल का रूख अपैक्स बैंक की ओर मैं रोड १ की ओर कर दिया.
यह क्या, पूरी सड़क अँधेरे में नहा रही थी. रोड डिवाइडर्स पर कभी कभार कोई ट्यूब-लाइट पल भर के लिए आँख मिचोली कर जाती. लेकिन हाँ, जैसा भुतहा कहानियों में अक्सर होता है, उस रोज़ पूर्णिमा का दिन था अतः चाँद पूरी रोशनी बिखेरा रहा था.
अपैक्स बैंक से डेढ़ किलोमीटर दूर अचानक मुझे छह या सात लड़कों का एक दल मेरी तरह साइकिल पर सवार देखा.
कुछ ही देर में मैंने स्वयं को उनके करीब पाया. इससे पहले मैं उनसे आगे निकल पाता, मैंने उन्हें आपस में कुछ इशारे करते देखा.
लड़कों ने आपस में बातचीत का अंदाज़ बदल दिया.
उन्हें एक मूक श्रोता मिल गया था.
"... अरे, यहीं तो था.." एक ने कहना शुरू किया तो सब के सब सामंजस्य पूर्ण ढंग से किसी कहानी का ताना बाना बुनने लगे.
"... भाई साहब, आप अकेले जा रहे हैं?" यह इलाका अकेले जाने के लिए ठीक नहीं है"
मैं निर्विकार भाव से उसी गति से आगे बढ़ता गया.
"... भाई साहब, आप रहते कहाँ हैं?" दूसरे ने कहा.
स्वाभाविक था लड़कों के दिमाग में कुछ न कुछ खुराफात जन्म ले रही थी. ओर इस खुराफात का निशाना मैं बनाया जाने वाला था.
"... कौन मैं?... बोर्ड ऑफिस के पास..." मैंने भारी सी आवाज़ बनाते हुए कहा.
मैंने काली जैकेट पहन रखी थी. मेरी साइकिल पर मेरा गज़ब का कण्ट्रोल हुआ करता था. इसलिए देर तक झुक कर साइकिल चलाने के बाद अब मैंने अपने हाथ बाँध लिए थे और संतुलन बनाते हुए साइकिल आगे बढ़ रही थी.
"...हाँ, ठीक है... लेकिन बोर्ड ऑफिस के पास कहाँ? ...कौनसी कॉलोनी में?
"... कॉलोनी? कैसी कॉलोनी? ...हमारे ज़माने में तो बस यहाँ जंगल हुआ करता था. बस यूँ समझ लो, मैं यहीं रहता हूँ...बोर्ड ऑफिस के पास एक दरख़्त पर." मेरी आवाज़ अब तक और भारी हो चली थी.
संयोग की बात...
अँधेरी सड़क पर एक ट्यूब-लाइट क्षण भर के लिए फिर जगमगाई. अब साइकिल रोशनी में ठीक से देखी जा सकती थी. लेकिन मेरी काली जैकेट में बंधे हुए मेरे हाथ नहीं.
"... अबे, ...अबे ... उसके हाथ..."
"... उसके हाथ नहीं हैं!"
एक लड़के ने दूसरों को चेताया.
सभी ने देखा, 'उसके' हाथ वाकई नहीं थे.
लड़कों की साइकलें धीमी हुईं, फिर वहीं रूक गयीं.
मेरी साइकिल सहज गति से धीरे धीरे उनकी नज़रों से ओझल हो गयी.
------------------------------------------------
कैसा लगी आपको यह सत्य कथा?
उन लड़कों का क्या हुआ?
क्या वे भी मेरी तरह यह प्रसंग अपने यार दोस्तों या बच्चों को सुनते होंगे?